Wednesday 30 May 2012

वे डॉक्टर नहीं रहना चाहते !!!!!!

ठीक है कि वे डॉक्टर नहीं रहना चाहते
योजना आयोग के मुताबिक, देशमें छह लाखडॉक्टरों, दस लाखनर्सों और दो लाखडेंटल सर्जनों की कमी है। पिछले एक साल में एक दर्जन वरिष्ठ प्रोफेसर एम्स छोड़ चुके हैं और अनेक वरिष्ठ प्रोफेसर रिटायर होने वाले हैं।
इस साल की सिविल सर्विसेज परीक्षा में एम्स से डॉक्टरी की पढ़ाई कर चुकीं शीना अग्रवाल अव्वल आई हैं। कश्मीर घाटी से सफल हुए छह उम्मीदवारों में से पांच डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी कर आए हैं। डॉक्टर आखिर आईएएस क्यों बनना चाहते हैं? कुछ साल पहले सफल हुए केरल के डॉ. समीरन ने डॉक्टर की सरकारी नौकरी के दौरान महसूस किया कि स्वास्थ्य के मुद्दे वास्तविक तौर पर सिर्फ स्वास्थ्य के मुद्दों तक ही सिमटे नहीं होते। इसी को ध्यान में रखकर उन्होंने चिकित्सा के बजाय प्रशासन का रास्ता पकड़ा।
बात 1982 की है, जब इंदिरा गांधी से मिलने नवनियुक्त आईएएस अधिकारी आए हुए थे। एक एक अधिकारी का परिचय प्राप्त करते हुए जब वह आगे बढ़ रही थीं, तो एक मेडिकल डॉक्टर आईएएस की बात सुनकर उन्होंने पूछा, आपको इस सर्विस में आने की क्या जरूरत पड़ी? युवा डॉक्टर आईएएस ने जवाब दिया कि एक सरकारी मेडिकल अफसर से सिविल सर्जन बनने में मुझे बीस साल लगेंगे और फिर भी डिस्ट्रिक्ट कलक्टर को रिपोर्ट करना होगा। आईएएस बनकर मैं महज चार साल में डिस्ट्रिक्ट कलक्टर बन जाऊंगा।
एम्स के वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. शक्ति गुप्ता ने कुछ साल पहले एक अध्ययन प्रकाशित किया था कि एम्स में साढ़े पांच साल की एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करवाने में प्रति छात्र लगभग एक करोड़ सत्तर लाख रुपये खर्च होते हैं। तब यह तथ्य भी सामने आया कि औसतन तिरेपन फीसदी छात्र एम्स की पढ़ाई के बाद उच्च अध्ययन या ज्यादा पैसा कमाने के लिए दूसरे देशों में चले जाते हैं। यही हाल आईआईटी का है। लंबे समय तक मद्रास, आईआईटी के निदेशक रहे डॉ. इंदिरेशन ने अपने एक लेख में हिसाब लगाया था कि आईआईटी से एक विद्यार्थी को पढ़ाई कराने में बीस से तीस लाख रुपये का कैपिटल खर्च आता है और उस समय के हिसाब से दो लाख रुपये का रनिंग खर्च।
करीब दस साल पहले प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में एक संसदीय समिति बनी थी, जिसने सुझाव दिया था कि सिविल सेवा परीक्षाओं में सम्मिलित होने से इंजीनियरों और डाक्टरों को वंचित किया जाना चाहिए, क्योंकि वे प्रचुर सबसिडी प्राप्त विशेषज्ञ शिक्षा प्राप्त करते हैं, पर देश को उनकी विशेषज्ञता का कोई लाभ नहीं मिलता। लेकिन इस सिफारिश को कूड़े के ढेर पर फेंक दिया गया। गौरतलब है कि जापान और फ्रांस जैसे देशों ने अपने यहां नौकरशाही में प्रोफेशनल डिग्रीधारियों को प्रतिबंधित कर रखा है।
योजना आयोग के मुताबिक, भारत में छह लाख डॉक्टरों, दस लाख नर्सों और दो लाख डेंटल सर्जनों की कमी है। इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार में अभी एक करोड़ पंद्रह लाख, उत्तर प्रदेश में पंचानबे लाख, मध्य प्रदेश में तिहत्तर लाख और राजस्थान में अड़सठ लाख की आबादी पर एक मेडिकल कॉलेज है, जबकि केरल में सिर्फ पंद्रह लाख, कर्नाटक में सोलह लाख और तमिलनाडु में उन्नीस लाख की आबादी पर एक मेडिकल कॉलेज कार्यरत है। एम्स की आम लोगों और मेडिकल विशेषज्ञों के बीच जो भी प्रतिष्ठा हो, सरकारी नीतियों और राजनेताओं और नौकरशाहों के अत्यधिक हस्तक्षेप ने इसकी चमक फीकी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। स्वास्थ्य संबंधी ढुलमुल नीतियों ने भी एम्स से डॉक्टरों के पलायन का मार्ग प्रशस्त किया। पिछले एक साल में एक दर्जन वरिष्ठ प्रोफेसरों ने एम्स को अलविदा कह दिया और अगले तीन वर्षों में करीब चार दर्जन वरिष्ठ प्रोफेसर रिटायर होने जा रहे हैं। यानी चिकित्सा के क्षेत्र में हमारी राष्ट्रीय चुनौतियां अभी थमने वाली नहीं हैं।

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